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16:19, 4 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
दिल के ज़ख़्मों को चलो ऐसे सँभाला जाए।
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए।
अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें,
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए।
आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा,
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए।
दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर,
क्यूँ ज़रूरी है कोई अर्थ निकाला जाए।
दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए,
यही लाज़िम है इसे और उबाला जाए।
दो विकल्पों से कोई एक चुनो कहते हैं,
या अँधेरा भी रहे या तो उजाला जाए।
</poem>
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