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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जहाँ दर्द आया हुनर में उतर कर।
कला बोलती है बशर में उतर कर।

भरोसा न हो मेरी हिम्मत पे जानम,
तो ख़ुद देख दिल से जिगर में उतर कर।

इसी से बना है ये ब्रह्मांड सारा,
कभी देख लेना सिफ़र में उतर कर।

महीनों से मदहोश है सारी जनता,
नशा आ रहा है ख़बर में उतर कर।

तेरी स्वच्छता की ये क़ीमत चुकाता,
कभी देख ‘सज्जन’ गटर में उतर कर।
</poem>
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