Changes

'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जीवन की बहती धारा में जो रुक जाता है।
मार समय की सहते-सहते वो चुक जाता है।

आँधी आती है तो जान बचाने की ख़ातिर,
जो जितना ऊँचा उतनी जल्दी झुक जाता है।

दो के झगड़े में होता नुक़्सान तीसरे का,
आँखें लड़ती हैं आपस में दिल ठुक जाता है।

अपने ही देते हैं सबसे ज़्यादा दर्द हमें,
चमड़ी के दिल तक चमड़े का चाबुक जाता है।

माँ, पत्नी अब साथ नहीं रह सकती हैं ‘सज्जन’,
भाव मिले जीवन-कविता में तो तुक जाता है।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits