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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए।
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए।

फ़न की ख़ातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए।
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए।

इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं,
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुए।

मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई,
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुए।

सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में,
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बाग़ी हम हर बार हुए।

जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया,
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुए।

चुपचाप सहन करते जाते तब हमको कहते देशभक्त,
पर ज्यों ही चीख उठा कोई हम सबके सब गद्दार हुए।
</poem>
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