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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
नींद में जब मुस्कुराई सादगी सोई हुई।
रूह में उठने लगी हर गुदगुदी सोई हुई।

मेघ का प्रतिबिम्ब दिल में किन्तु जनहित के लिए,
बाँध की बाँहों में है चंचल नदी सोई हुई।

जाग जाए तो यक़ीनन क्रांति का हथियार ये,
है दमन की सेविका भर लेखनी सोई हुई।

मौत के पैरों तले कुचली गई थी कल मगर,
आज फिर फुटपाथ पर ही ज़िंदगी सोई हुई।

उस मिलन से ख़ूबसूरत दृश्य फिर देखा नहीं,
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई।

आ के आधी रात को चुम्बन लिया नववर्ष ने,
ले के अँगड़ाई उठी फिर जनवरी सोई हुई।
</poem>
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