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<poem>
गीत में अब मैं तुम्हें लिख नहीं पाती।

शब्द जैसे पंखुड़ी बन झर गये हैं,
भावनाओं के भ्रमर भी मर गए हैं,
छंद औ' गीतों में छिड़ता द्वन्द कोई
बंद सारे इधर-उधर बिखर गए हैं,
ये अधूरी कथायें अब नहीं गाती।

दूर तक किस शून्य को मैं देखती हूँ,
मन-तरंगों से संदेसा भेजती हूँ,
क्यों जगत के सामने मैं प्रेम रोऊँ?
अश्रु-जल इस व्यथित हृदय सहेजती हूँ,
मूर्ति जो मन में बसी वह नहीं जाती।

दिन गुज़रता ज्यों बड़ी चट्टान कोई
नहीं दिखता दूर तक अवसान कोई
गहन वेदना शूल बन कर संग रहती
बन रही मेरी यही पहचान कोई
समय की यह सुई तो थम नहीं पाती...
</poem>