Changes

दोपहर की धूप में हम / मानोशी

1,228 bytes added, 23:34, 13 अप्रैल 2018
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानोशी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मानोशी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}

<poem>
दोपहर की धूप में
हम ढूँढते हैं छाँव कोई ।

सुखद बंधन स्वप्न जैसा
मिलन को है हृदय आकुल,
हो न जाए शेष रजनी
प्राण भय से सदा व्याकुल,
एक दूजे बिन अधूरी कथा का
क्या ठाँव कोई ।

राह में कुछ कंकड़ों की
चुभन तो होना ज़रूरी,
पास हों मन तो भला क्या
मायने रखती है दूरी,
चीखता है मन व्यथा से
पर न थकते पाँव कोई ।

बहुत चंचल है लहर पर
दिख रहा हमको किनारा,
कालिमा घन, धुप अँधेरा
मन मगर हिम्मत न हारा,
है अटल विश्वास विधि पर
खे रहा है नाव कोई ।
</poem>