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02:52, 14 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मानोशी
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<poem>
कितने ही सीपी
सागर में
किसी एक में मोती मिलता ।
सतरंगी काया
छल करती,
झूठ-मूठ के
रंग बिखरती,
आकर्षण के मद में
पागल
क्षणभंगुर जग में
हठ धरती,
फ़ेन उगलता उथला सागर
गहरे पानी जीवन खिलता |
लाभ-हानि के भँवर
फँसे मन,
सम्बन्धों में है
ख़ालीपन,
पूर्ण समर्पण बात पुरानी,
ढीले पड़ते
सभी दृढ़ कथन,
छोटे से सादे जीवन को
जकड़े जाती बड़ी जटिलता ।
जगत मोह के पाश
बँधा है,
जीवन इक गोरखधंधा है,
माया के आगे
हर मानव
आँखें हो कर भी
अंधा है,
अपने-अपने स्वार्थ सभी के
पर-पीड़ा से कौन पिघलता ।
कितने ही सीपी सागर में
किसी एक में मोती मिलता ।
</poem>