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<poem>
अजनबी लगने लगे क्यों
दो पथिक इक राह के।

झिलमिले पल मिट रहे हैं
धुँध गाढ़ी हो रही,
हर तरफ़ कुहरा घना है
सत्यता ज्यों खो रही,
बाँधती थी डोर जो वो
बन गयी इक गाँठ क्यों,
कस गए सम्बंध जो फिर
खुल न पाए चाह के।

पथ कँटीला भी सरल था
सहज से जब स्वप्न थे,
फिर पृथक होने लगे पथ
हम स्वयं में मग्न थे,
प्रीत दावे कर रही अब
पर हृदय यह रो रहा,
प्राथमिकता ज्यों भटकती
नाव बिन मल्लाह के।

साँझ होने को चली, लो
स्वप्न भी ढलने लगा,
छाँव अब छुपने लगी औ’
वक़्त भी छलने लगा,
शेष हैं यादें पुरानी
आज में जो खेलतीं,
ताकते से हम खड़े
निर्जन डगर, बिन छाँह के।
</poem>