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एक ‘ढ’ ग़ज़ल / साहिल परमार
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23:41, 28 अप्रैल 2018
कोई हमारी आह को सुन क्या सकेगा
बजतीं यहाँ चारों तरफ़
शहनाइयां
शहनाइयाँ
हैं
'''मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार'''
</poem>
अनिल जनविजय
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