|संग्रह=नई चेतना / महेन्द्र भटनागर
}}
[4] अपराजित
हो नहीं सकती पराजित युग-जवानी !
नव-सृजन की कामना को,
सर्वहारासर्र्वहारा-वर्ग की युग -
युग पुरानी साधना को,
पर्वतों से दृढ़ खड़े जो,
...शत्रु को ललकारते हैं,
...जूझते हैं, मारते हैं,
...विश्व केर कर्तव्य पर जो
...ज़िन्दगी को वारते हैं,
कब शिथिल होती, प्रखर उनकी रवानी !
शान से छाती उभरती,
जो तिमिर में पथ बताती,
हर दिशा में गूँज जाती,
क्रांति का संदेश नूतन
जा सितारों को सुनाती,
बंद हो सकती नहीं जन-त्राण-वाणी !
1951