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10:10, 21 जून 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>
लोग करने लगे जवाब तलब
अब अदालत में हों जनाब तलब
वो चराग़ों से हाथ धो बैठे
कर रहे थे जो आफ़ताब तलब
ज़ख़्म कुछ और दर्ज करने हैं
कीजिये मत अभी हिसाब तलब
दे चुकी नींद अपनी मंज़ूरी
कर लिए जाएं सारे ख़्वाब तलब
मांगना है तो फिर चमन मांगे
क्यों करें एक दो गुलाब तलब
</poem>