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{{KKRachna
|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज
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<poem>
बगीचे मै घूम रही, सखियों की टोळी रै,
मुरगाई ज्युं चक्कर काटैं, ओळी-सोळी रै ।। टेक ।।

पडैं थे पळाके, जैसे दामिनी घन मै,
हाथी कैसी चाल, कटि जिमि केसरी वन मैं,
खिलया होया फूल, झूल घली गुलशन मै,
गावती मंगलाचार, राजी हो रही मन मै,
ईशारे से चालैं थे, ज्युं रण मै गोळी रै।।

हाथां मेहंदी लाई, सब सिंगार कर राख्या,
हार लड़ी गळ पड़ी हुई, सजा-2 नग धर राख्या,
केश गुळझटीदार ज्युं, फण ठा विषियर राख्या,
कपड़्या मै खुशबु ऊठै, रम्या इत्र राख्या,
बोली मैं रस भर राख्या, ज्युं मिसरी सी घोळी रै।।

करैं थी अंघाई, अंगड़ाई सी टूटैं थी,
जोबन जल का ताल, झाल मनसिज की उठैं थी,
आपस मैं हंस-हंस कै, रस सा घूंटैं थी,
शीतल मंद सुगंध हवा, आनंद सा लूटैं थी,
पिचकारी सी छूटैं थी, ज्युं फागण मैं होळी रै।।

शंकरदास समाधी से, जो दिल नै डाटैं सै,
गुरु कृपा से हटै अंधेरा, बेरा पाटै सै,
केशोराम नाम रटकें, बहु बंधन काटैं सै,
नुगरे का एतबार नहीं, हाँ भर कै नांटैं सै,
ज्युं नंदलाल पतासे से बाटै सै, भर-भर झोळी रै।।
</poem>
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