|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
}}
<poem>
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!
वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?वह प्रगति भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियाँ तितलियाँ,मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येय-पथ, मंजिल भुला दें?जिन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल है,आँधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुसाफिर!पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!<br>मुसाफिर॥
वह मुसाफिर क्या जिसे जानता जब तू कि कुछ शूल ही पथ के थका दें?<br>भी हो तुझे ब़ढ़ना पड़ेगा,हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?<br>वह प्रगति आँधियों से ही न खुद से भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियाँ तितलियाँतुझे लड़ना पड़ेगा,<br><br>मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येयसामने जब तक पड़ा कर्र्तव्य-पथतब तक मनुज ओ!मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगा, मंजिल भुला दें?<br>जिन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल हैअधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराता,<br>आँधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुस्कुराती जाए जिससे जिन्दगी असफल मुसाफिर!<br>पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥<br><br>मुसाफिर।
जानता जब तू कि कुछ याद रख जो आँधियों के सामने भी हो तुझे ब़ढ़ना पड़ेगामुस्कुराते,<br>आँधियों से ही वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,चिन्ह वे जिनको न खुद से धो सकते प्रलय-तूफान घन भी तुझे लड़ना पड़ेगा,<br>सामने जब तक पड़ा कर्र्तव्य-मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ तब तक मनुज ओ!<br>मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगाबताते,<br><br>है अधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराताकिन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,<br>मुस्कुराती जाए जिससे जिन्दगी असफल उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!<br>पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर।<br><br>मुसाफिर॥
याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,<br>वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,<br><br>चिन्ह वे जिनको न धो सकते प्रलय-तूफान घन भी,<br>मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते,<br>किन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,<br>जिन्दगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!<br>पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥<br><br> कंटकित यह पंथ भी हो जायगा आसान क्षण में,<br>पाँव की पीड़ा क्षणिक यदि तू करे अनुभव न मन में,<br>सृष्टि सुख-दुख क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,<br>भावना की ही प्रतिध्वनि गूँजती भू, दिशि, गगन में,<br>एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,<br>भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर!<br>पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥<br><br>
देख सर पर ही गरजते हैं प्रलय के काल-बादल,<br>व्याल बन फुफारता है सृष्टि का हरिताभ अंचल,<br>कंटकों ने छेदकर है कर दिया जर्जर सकल तन,<br>किन्तु फिर भी डाल पर मुसका रहा वह फूल प्रतिफल,<br>एक तू है देखकर कुछ शूल ही पथ पर अभी से,<br>है लुटा बैठा हृदय का धैर्य, साहस बल मुसाफिर!<br>
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥
</poem>