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हेत रो घर / राजेन्द्र जोशी

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|संग्रह=कद आवैला खरूंट ! / राजेन्द्र जोशी
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<poem>
अै ठाठ अर नौकर-चाकर
म्हैल अर माथो झुकावणियां सूं
जी अमूजै
सांकळ लखावै
जिकै नैं खुद रै सरीर सूं
कियां उतारै
नीं समझ रैयी है बा छोरी।

स्यात सांकळ कियां हुवै पाधरी
फकत खुद बणावणो चावै घर
तगारी गारै री हाथां सूं उठावणी पड़ै
जाणता थकां
उण सांकळ नै तोड़णी चावै बा छोरी।

नीं करै हेत
भाटै अर चूनै सूं
घिरणा आवै जिका भाटा
खुद रै हाथां रळ्योड़ा नीं है।

बो हेत रो घर हुवैला
जिकै नै आपरै सुपना रै प्रेम रै सागै
रळ'र बणावैला बा छोरी।
</poem>
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