<poem>
सूरज लिकड़दे ईकदे खुलै थापहाड़ी कान्नीजो '''बन्द दरवाज्जा,'''सात्थी दरवाज्जे तैटुसकदे '''हो'''ए बोल्या-'''भा'''ई ! सुण तो के अन्दाजा है थारामान्नै फेर केकोई आकै खोल्लैगाघर की दवाल्लाँ तैके ईब कोई बोल्लेगा।इस पै कई साल्लाँ तैबन्द पड़ी एक खिड़कीअपणी सात्थन खिड़की कीसुन्नी आँखाँ मैं झाँक कैअँ'''धे'''रे मैं सुबकदी रोण लाग्गी,इतने मैं '''भो'''र होग्गीदरवाज्जे बी चुपचाप सैखिड़कियाँ बी हैं उदास खुलण की नहीं बची आस,पर सच कहूँ ! बेर नी क्यूंइन सार्याँ नै है हवा पै बिस्वास्।लाग्गै है सुणैगी सिसकियाँपगडण्डियाँ तै उतरदी '''ह'''वा पलटैगी रुख शायद ईब'''ध'''क्का दे कैचरमरान्दे होएपहाड़ी कान्नी '''फे'''र तैखुलैगा-बन्द पड़्या दरवाज्जाचरड़मरड़ के संगीत पैझूम्मैगी फेर तै खिड़कियाँघाट्टी मैं गुन्जैंगी स्वर लह'''रि'''याँ'''( हरियाणवी में अनुवाद: डॉ.उषा लाल ) '''[भ ,ध,फ ,आदि कुछ वर्ण गहरे काले रंग में हैं. उच्चारण करते समय यहाँ विशेष प्रकार का बलाघात( लहज़ा) होता है , जो भाषा की विशिष्ट पहचान है .
</poem>