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कैसे भी वार करूंकरूँ
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था
धरती खोद डाली
पर वह दफन दफ़न नहीं होता थाउसके पास जाऊंजाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दांत कांटूदाँत काटूँतो मुंह मुँह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते -करते मैं हांफने हाँफने लगापर उसने उफ उफ़्फ़ नहीं की
तभी एकाएक पीछे से
दियासलाई से जला दूँ।
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(पटना में पांच पाँच जनवरी 1987 को खादी ग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता, यह वही समय था जब वे कांग्रेस के भीतर रहकर अपनी लड़ाई लड लड़ रहे थे।)