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18:58, 22 अगस्त 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=ललित कुमार
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'''बिजली कैसे चमके लागै, रत्ना के म्हा जड़ी हुई,'''
'''चन्द्रमा सी श्यान हूर की, फुर्सत के म्हा घड़ी हुई || टेक ||'''
घड़दी सूरत, प्यारी मूरत, चंदा पुर्णमासी का,
पड़ै नूर, भरपूर हूर, योवन सोला राशि का,
रंगरूप, सूरज की घूप, इस सोने की अठमासी का,
यो लागै लाणा, मैला बाणा, भेष बणारी दासी का,
यो चेहरा तेरा उदासी का, बिन मोती माला लड़ी हुई ||
या जबर-जवानी जोबन की, कोन्या झूठ कती परी,
अग्निकुंड सा रूप तेरा, तूं दक्ष घरा सती परी,
दासी बणकै करैं गुजारा, बणै कीचक तेरा पति परी,
के ब्रह्मा की ब्राह्मणी, के कामदेव की रती परी,
तू शिवजी की पार्वती परी, कैलाश छोड़ आ खड़ी हुई ||
यां कंचन-काया चार दिन की, फेर के बितैगी तेरे पै,
कमर के ऊपर चोटी काली, जणू विषियर नाचै लहरे पै,
सिंध-उपसिन्ध ज्यूँ कटकै मरज्या, तेरे तिलोमना से चेहरे पै,
महराणी का दर्जा देकै, मैं राखूं तनै ईब बसेरे पै,
रहै 105 तेरे पहरे पै, क्यूँ दासी बणकै पड़ी हुई ||
कांची कली नादान उम्र, योवन सतरा-अठारा सै,
तेरी दासी-बांदी टहल करैंगी, लग्या मृगा कैसा लारा सै,
कणि-मणि और मोहर-असर्फ़ी, बरतण नै धन सारा सै,
कहै ललित बुवाणी आळा, तेरा गुर्जर गैल गुजारा सै,
जड़ै स्वर्ग सा नजारा सै, फेर क्यूँ जिद्द पै तूं अड़ी हुई ||
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