1,706 bytes added,
11:03, 25 जुलाई 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ
मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ
ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे
तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ
मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ—साथ था मैं
तू अगर नदी हुई तो मैं तेरी सतह रहा हूँ
तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ
कभी दिल में आरज़ू—सा, कभी मुँह में बद्दुआ—सा
मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ
मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ
यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है
कि ये बात क्या हुई है,जो मैं शे’र कह रहा हूँ