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03:32, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
}}
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<poem>
न दर्द उठता है दिल में न आह भरते हैं
तुम्हारी याद में ऐसे भी दिन गुज़रते हैं
ये बे-पनाह अंधेरे निगल न जाएं उन्हें
सुना है अहले-जहां रौशनी से डरते हैं
उभरने लगते हैं माज़ी की सिलवटों से नकूश
कभी जो ज़िक्र तुम्हारा किसी से करते हैं
बहार हो कि खिज़ा मौसमों की क़ैद नहीं
निखरने वाले हर इक रंग में निखरते हैं
</poem>