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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
देखते ही आप को कुछ हो गया
एक पल में अपनी सुध-बुध खो गया

दूर जब तहजीब से मैं हो गया
जो भी मेरे पास था सब खो गया

ज़िंदगी जीता रहा टुकड़ों में मैं
मौत का अच्छा तजुर्बा हो गया

कोसते हो क्यों भला तक़दीर को
जो भी होना था अजी वो हो गया

कुछ कदम चलता रहा उंगली पकड़
फिर कहीं बचपन अचानक खो गया

उम्रभर आँखों से रूठी नींद थी
अब हमेशा के लिए वो सो गया

काम पर जाना नहीं क्या आप को
उठ भी जाओ अब सवेरा हो गया

कोई रहबर है न मेरा हमसफर
कारवां भी छोड़ कर मुझ को गया
</poem>
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