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डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप खज़ाने में / मुनीर नियाज़ी
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,
09:48, 27 जुलाई 2008
|रचनाकार=मुनीर नियाज़ी
}}
डर के किसी से छुप जाता है जैसे
सौंप
साँप
खज़ाने में<br>
ज़र के ज़ोर से जिंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में<br><br>
जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में<br>
अनिल जनविजय
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