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भटक रही है ज़िंदगी न रास्ता सूझे
पड़ी भँवर में है कश्ती न रास्ता सूझे
सही सुना था गया पास तो यक़ीं आया
यही है प्यार की गली न रास्ता सूझे
 
जिधर भी हाथ बढ़ाता हूँ ख़ार मिलते हैं
किसे सुनाऊँ बेबसी न रास्ता सूझे
 
इसी का नाम ज़िंदगी है दोस्तो शायद
गले में फाँस-सी पड़ी न रास्ता सूझे
 
अभी ठहर के यहीं इंतिजार कर लेंगे
अभी घनी है तीरगी न रास्ता सूझे
 
मुझे उम्मीद है सूरज यहीं से निकलेगा
घड़ी है इम्तिहान की न रास्ता सूझे
</poem>
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