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आदमी अकेला है
चूहों की भगदड़ मेंस्वप्न गिरे हुए चूरसमझौतों से डरकर
भागे आदर्श दूर
शोर बहा
गली -सड़क
मन की आवाज घुली
यंत्रों सेतार जुड़े
रिश्तों की गाँठ खुली
सीरत अब धेला है
मुट्ठी भर तरु सोचेंकहाँ गया नील गगन कहाँ?बढ़ता वनले खा लेगाइनकी इनको भी जान यहाँईंटों का बढ़ता वन
व्याकुल है मन -पंछीविरहा की कैसी ये बेला है
</poem>
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