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<poem>
आतंकित हो
मानवता की कोयल भूली कूक
अंधा धर्म
लिए फिरता है
हाथों में बंदूक
नफ़रत के प्यालों में
जन्नत के सपनों की मदिरा देकर
कुछ मदहोशों से
मासूमों की निर्मम हत्या करवाकर
 
धर्म बेचने वाले सारे
रहे ख़ुदी पर थूक
 
रोटी छुपी दाल में जाकर
चावल दहशत का मारा है
सब्ज़ी काँप रही है थर थर
नमक बिचारा हत्यारा है
 
इसके पैकेट में आया था
लुक-छिपकर बारूद
 
इक दिन शल्य-चिकित्सा से जब
अंधा धर्म आँख पायेगा
हाथों पर मासूमों का ख़ूँ देखेगा
तो मर जाएगा
 
देगी मिटा धर्मगुरुओं को
ख़ुद उनकी ही चूक
</poem>
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