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सूरज रे जलते रहना / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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14:55, 21 जनवरी 2019
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<poem>
तन में मन में
जब तक ईंधन
सूरज रे जलते रहना
जो डर को बेचा करते वो
जग का अंत निकट है कहते
जीवन रेख अमिट धरती की
हिमयुग आए गए बहुत से
आग अमर लेकर सीने में
लगातार चलते रहना
तेरा हर इक बूँद पसीना
छू धरती अंकुर बनता है
हो जाती है धरा सुहागिन
तेरा ख़ून जहाँ गिरता है
बन सपना बेहतर भविष्य का
कण-कण में पलते रहना
छँट जाएगा दुख का कुहरा
ठंड ग़रीबी की जाएगी
ये लंबी काली रैना भी
छोटी ही होती जाएगी
बस अपनी किरणों से
बर्फ़ सियासत की दलते रहना
</poem>
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