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19:29, 21 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
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<poem>
सफ़र में अकेला आदमी तीन लोगों के लिए अढ़ाई टिकट खरीदता है।
बाकी दो लोगों को वह ख़ुद में समेट चुका है। वह आदमी अढ़ाई हो गया है।
उसके साथ खड़ी एक आदमी है। वह उसके साथ अढ़ाई होने का एहसास बाँटती
है, जैसे वह बाँटती है और सब कुछ। अढ़ाई होते हुए वह बहुत ख़ुश है।
इसी बीच तीसरा आदमी मुँह में उँगली डाले अदृश्य लोगों से बात कर रहा है।
वह शायद पूछ रहा है, तीन लोग अढ़ाई कैसे हो सकते हैं। अढ़ाई के ख़याल में खोया
वह नन्हा आदमी कई लोगाेें की आँखों में हमेशा के लिए बस जा रहा है। सालों
बाद लोग अचानक फिर उसे देखेंगे, पर वह नहीं दिखेगा। उसे देखने को उतावले
लोग परेशान सोचते रहेंगे कहाँ देखा था उसे।
दूर एक शहर में दिनों तक खड़ा रहता है अढ़ाई दिनों का झोपड़ा।
</poem>