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08:18, 2 अगस्त 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार विकल
|संग्रह= एक छोटी-सी लड़ाई / कुमार विकल
}}
मैं खुले विस्तार की हर चीज़ को निहारता
विमुग्ध,आत्म—विभोर
जीने के कर्म से अभिभूत
सारी दिशाओं में फैल कर
किसी एक बिंदु पर सिमती हुई गंध
परिवेश के हर पेड़—पौधे को को समर्पित.
किंतु तुम
संत्रस्त— अपनेआप से भयभीत,
आतंकित
अपने नर्क में अभिशप्त
टोकरी में बंद साँप
ज़हर की अभिव्यक्ति को आतुर.
कौन कहता है कि हम जुड़वाँ सहोदर
और केवल भ्रम यह ध्रुवांतर?