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04:30, 23 मार्च 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुमन ढींगरा दुग्गल
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<poem>
राहें तकती हूँ मेरे बाब नहीं आते हैं
मेरे घर क्यूँ मेरे अहबाब नहीं आते हैं
तह में दरिया की उतरना नहीं आता जिनको
उनकी तक़दीर मे सीमाब नहीं आते हैं
बदनसीबी का ये आलम है कि नींद आती है
मेरी आँखों में मगर ख्वाब नहीं आते हैं
ज़िंदगी अब न करेंगे वो पुराना शिकवा
मुझको ही जीने के आदाब नहीं आते हैं
हार कर बैठे हो क्यों ऐसे भला साहिल पर
किसकी राहों मे यूँ गिर्दाब नहीं आते है
वक्त के साथ हुए रेत के जैसे रिश्ते
अब वो ज़ज्बात में सैलाब नहीं आते हैं
आप उतरें न मुहब्बत के समंदर मे सुमन
इसमें जो हो गये गर्काब नहीं आते हैं
</poem>