नील नभ पर रश्मियों को मगन देखा।
फिर गगन में ज्वार–भाटा उर्मियांे उर्मियों का,
नृत्य जिस पर बादलों का, बिजलियों काय
एक तारक बीच में कब से सिहरता,
गुरु, विभाकर, सूर्य सब आगे हुए हैं,
कर–चरण के भाग्य सब जागे हुए हैंयहैं
बह रहा है स्वर्णतरी परय हो हिंडोला,
देख, मन का हर्ष कुन्ती ने टटोला।
देखती है क्षीर–सिन्धु द / िा–उद / िा दधि–उदधि है, द / िासुतादधिसुता, द / िासुत दधिसुत वहाँ, कुछ और यदि है।
वृष्टि केशर की, खिला अम्बर कमल–सा,
हो गया हो व्योम कंचन के महल–सा।
लीन होती नीलिमा नीली व्यथा कीय
बोलती आगे पृथा कुछ जानने को,
/ ौर्य धैर्य लेकिन था कहाँ कुछ सामने को।
कह उठा, " सब कुछ कुशल है, क्षेम कहिए,
और तिगुनी धार चन्दन की अनोखी।
" स्वर्ण का संदूक सी / ो सीधे जा रहा था,
धार के संग मरुत लोरी गा रहा थाय
रात भर बहता रहा संदूक थिर–सा,
एक टक था देखता उसको अ / िार–सा। अधिर–सा।
" और जब संदूक तट से जा लगा तो,
शांत थीं सारी दिशाएँ, उद / िा उदधि सातो,
और संग–संग रात भर वह जो चला था,
भोर होते व्योम से वह जा मिला था।
" उस समय देखा था शिशु को यूँ हुलसते,
सिद्धि–नि / िा सिद्धि–निधि की गोद में सुख को किलकते।
मोक्ष से बढ़ कर सुखद वह एक क्षण था,
योग क्या संयोग था? ऋण से उऋण था।