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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषिपाल धीमान ऋषि
|अनुवादक=
|संग्रह=शबनमी अहसास / ऋषिपाल धीमान ऋषि
}}
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<poem>
ज़िन्दगी से गया ज़िन्दगी का निशां
आदमी में नहीं आदमी का निशां।

मैं दिया बन के जलता रहा हूँ मगर
ज़िन्दगी में रहा तीरगी का निशां।

अब तो दीवान ऐसे भी छपने लगे
जिनमें होता नहीं शायरी का निशां।

किस तरह से इबादत फलेगी भला?
जब दिलों में नहीं बन्दगी का निशां।

ऐसी आई तरक़्क़ी मेरे गांव में
खत्म जिसने किया गांव ही का निशां।
</poem>
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