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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
लगता है लहू खोलने अक्सर मिरे अंदर
जब सोच कक उठता है बवंडर मिरे अंदर।

आंखों में मेरी झांक कभी दिल को मेरे छू
तू देख तो इक बार उतरकर मिरे अंदर।

मत सोच मिरे ख़्वाब फ़क़त मेरे लिए हैं
पलता है ज़माने का मुक़द्दर मिरे अंदर।

चल साथ मिरे जल के अंधेरे को मिटाने
है आग बराबर तिरे अंदर मिरे अंदर।

सोचूं जो नया कुछ तो वो तूफ़ान उठा दे
इक शख्स है मुझसे ज़रा बदतर मिरे अंदर।

बाज़ार न गुम कर दे तिरे मेरे भी एहसास
हर पल है यही चीख़ यही डर मिरे अंदर।

मिलती न मुझे मेरे गुनाहों की सज़ा तो
ऐसे में उतर जाता है खंज़र मिरे अंदर।

</poem>
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