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<poem>
उतर रही है स्वर्गधाम से
गंगा गँगा का क्या ठाठ-बाट है !
चीर पहाड़ों की छाती को
गोमुख से ऋषिकेश पधारी
पहुंची पहुँची है मैदानों में
देवभूमि के देव छोड़कर
घुलती-मिलती इंसानों इनसानों में
इतराती चल रही बीच में
इधर घाट है, उधर घाट है !
संकरी सँकरी राह छोड़कर पीछे
अतुल-विपुल विस्तार ले रही
पर्वत पर सिमटी-सिकुड़ी थी
अब व्यापक आकार ले रही
तटबंधों तटबन्धों को तोड़ रही है
कितना चौड़ा हुआ पाट है !
मंदिरमन्दिर, भवन, सीढ़ियांसीढ़ियाँ, झूलेसंतसन्त,महंतमहन्त, पुजारी, पंडेपण्डे
संन्यासी, श्रद्धालु भक्तजन
सबके अपने-अपने झंडेझण्डे
आश्रमवासी, मठाधीश हैं
सबकी अपनी अलग हाट है !
तीर्थकाम, निष्काम पर्यटक
भावुक जन, भोले अभ्यागत
धरती पर उतरी गंगा गँगा का
विह्वल मन से करते स्वागत
वंदन, कीर्तन, भजन, आरती
दृश्य भव्य, अद्भुत, विराट है !
साज-सिंगार किया गंगा गँगा ने
पहन सेतु की चपल मेखला
बनी मत्स्यकन्या-सी अनुपम
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