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घर / विनोद विट्ठल

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<poem>
'''एक'''
पहाड़ छोड़ देते हैं अपनी अकड़
जँगल अपनी जड़
 
धरती बनना चाहती है माँ
आकाश पिता बनने नीचे उतरता है
 
नदी की तरह मुस्कुराता है एक बच्चा ।
 
'''दो'''
 
हार जाते हैं योद्धा
थक जाते हैं शक्तिवान
सो जाते हैं सांसारिक
 
सबके सपनों में
दरवाजे-सा जगता रहता है ।
 
'''तीन'''
 
बहुत अकेले हो जाते हैं
ऊबने लगते हैं हर-एक से
घेरने लगती है स्मृतियाँ और आशँकाएँ
समय हो जाता है लम्बा और भारी
 
एक क़िस्सा-गो जो दूसरी दुनिया में ले जाता है ।
</poem>
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