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सुख़नवर जो भी बन जाता / हरिराज सिंह 'नूर'
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16:15, 27 अक्टूबर 2019
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सुख़नवर जो भी बन जाता।
अदब को क्या, वो दे पाता?
ग़ज़ल की बात मत छेड़ो,
ग़ज़ल कहना किसे आता?
ग़ज़ल को भूल बैठा जो,
ख़ुदा को वो नहीं भाता।
ग़ज़ल की बन्दगी करके,
ख़ुदा से जुड़ गया नाता।
ग़ज़ल की रहनुमाई में,
सफ़र आसां हुआ जाता।
ग़ज़ल को अज्मतें बख्शो,
तुम्हारा कुछ नहीं जाता।
यहाँ है कौन ऐसा जो,
न रक्खे ‘नूर’ से नाता।
</poem>
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