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<poem>
इक दरिया था और इक किनारा।
दोनों की हदें थी
और हदों का ख़्याल भी
पर दरिया दरिया था
हदों का ख़्याल होते हुए भी
उसे तोड़ने की ख़्वाहिश
जब तब दिल में दस्तक देती रहती।
गुरूर भी था हदों से बाहर होने का
और इक दिन दरिया
किनारे को तोड़
बहता गया बहता गया
अब सिर्फ़ वही था सिर्फ़ वही।
किनारा डूब चुका था
और उसका वज़ूद दरिया में।
दरिया अब अकेला था बिल्कुल अकेला।
उसने इक निगाह अपने चारों ओर डाली
पर ये क्या ?
भीतर तक थर्रा गया वह
क्योंकि वह अपने ही सैलाब में डूब चुका था
किनारे का नाम-ओ-निशाँ मिट चुका था
पर अब दरिया बहुत परेशाँ था
किस से टकराये ?
और किसको दिखाये अपना गुरूर ?
</poem>
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