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मेरे साथ / वेणु गोपाल

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सतह से मैंने सिर ऊपर उठाया
 
तो ख़ामोशी किस कदर हँस रही है!
 
मै बस के पायदान पर लटक के
 
यहाँ से कहाँ जा रहा हूँ?
रविशंकर के सितार को
 
क्या कुछ और बुलंद नहीं हो जाना चाहिए था
 
लोरी सुनाते वक़्त?
 
तब
 
मैं
 
आकाश का
 
नीलापन तो नहीं हो जाता
 
और
 
स्टेज पर
 
अंधेरा तो नहीं छा जाता
 
खलनायक के आते ही।
 
मेरा
 
घर ही था
 
जो
 
रहा
 
मेरे साथ
 
ऎसे में।
 
(रचनाकाल : 04.08.1971)
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