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तुम्हारे वक्ष-कक्ष में / ज्ञानेन्द्रपति
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08:23, 8 सितम्बर 2008
जगह नहीं इस धरती पर कोई और
शुभाशा के वायुमंडल से भरे
तुम्हारे वक्ष-कक्ष से बढ़ कर-
जानता नहीं कोई यह मुझ से ज़्यादा-
कि जिसकी चौखट पर
टिकाते ही अशांत माथा
नींद में निर्भार होने लगती है देह
एक शिशु हथेली मन की स्लेट से पोंछने लगती है आग के आखर
अनिल जनविजय
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