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माहिए (11 से 20) / हरिराज सिंह 'नूर'
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|संग्रह=बादे सबा / हरिराज सिंह 'नूर'
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<poem>
11. बरसात की ये रातें
काटे नहीं कटतीं
कैसे हों मुलाक़ातें
12. भर- भर के मैं पिचकारी
खेल रही होली
क्यों शांत हैं गिरधारी
13. खिलता हुआ बचपन है
जोश जवानी पर
बूढ़ों का बुझा मन है
14. ‘ख़ुसरो’ ने पहेली में
ख़ूब ये लिक्खा है
जां क़ैद हवेली में
15. दुनिया तो ये नक़्ली है
अस्ल है ‘गुरुवाणी’
कहती फिरे ‘पगली’ है
16. तितली तिरे रंगों में
खोये हुए हम हैं
जीवन की तरंगों में
17. इस खारे समुन्दर में
कितने भरे मोती
पर किसके मुक़द्दर में
18. फिरती फिरे इक रानी
फूल का मुँह चूमे
करती रहे मनमानी
19. कोयल तो तभी बोले
बाग़ में पुरवाई
जब बौर का तन तोले
20. बंजारों-सी हस्ती है
सब की निगाहों में
बेकार की मस्ती है
</poem>
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