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07:39, 13 जून 2020 {{KKGlobal}}
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<poem>
हरित भू की हरितिमा तू धवल धारा धारिणी ।
मात गंगे नव तरंगें सकल कलिमल हारिणी ॥
विष्णुपद नख वासिनी,
पुनि बिधु कमंडलु हासिनी ।
गृह हिमंचल लासिनी,
शिव जटा जूट विलासिनी ।
कपिल मुनि के कोप शापित, सगर सुत उद्धारिणी ।
मात गंगे नव तरंगें सकल कलिमल हारिणी ॥
पाप मोचन जगत की.
वरदान सुन्दर मात रे ।
शिव प्रिया सुखमय सुधा,
जयगान दिवस रात रे ।
नृप भगीरथ की तपस्या, विद्यापति कवि तारिणी
मात गंगे नव तरंगें सकल कलिमल हारिणी ॥
हिम शिखर का वेग हो
या, कला समतल धार की ।
हो नहीं सकती प्रशंसा,
मात के व्यापार की।
पापहारी मोक्ष दातृ, जीव बंध निवारिणी ।
मात गंगे नव तरंगें सकल कलिमल हारिणी ॥
</poem>