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पाहुन बरखा / लावण्या शाह

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<poem>
बरखा सहृदया उमड़ घुमड़ कर बरसे,
तृप्त हुई, हरी भरी, शुष्क धरा,
बागोँ मेँ खिले कँवल - दल
कलियोँ ने ली मीठी अँगडाई !
फैला बादल दल , गगन पर मस्ताना
सूखी धरती भीग कर मुस्काई !
मटमैले पैरोँ से हल जोत रहा
कृषक थका गाता पर उमग भरा
" मेघा बरसे मोरा जियरा तरसे,
आँगन देवा, घी का दीप जला जा !”
रुन झुन रुन झुन बैलोँ की जोड़ी,
जिनके सँग सँग सावन गरजे !
पवन चलाये बाण, बिजुरिया चमके
सत्य हुआ है स्वप्न धरा का आज,
पाहुन बन हर घर बरखा जल बरसे !
- - लावण्या
</poem>
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