Changes

महानगर / हरिवंशराय बच्चन

291 bytes removed, 16:27, 28 जुलाई 2020
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=उभरते प्रतिमानों के रूप / हरिवंशराय बच्चन
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
महानगर यह
 
महाराक्षस की आँतों-सा
 
फैला-छिछड़ा
 
दूर-दूर तक, दसों दिशा में,
 
ऐंड़ा-बैंड़ा, उलझा-पुलझा;
 
पथों, मार्गों, सड़कों, गलियों,
 
उप-गलियों, कोलियों, कूचों की भूल-भुलैया,
 
जिनमें, जिन पर मवेशियों से लेकर
 
लेमूशीनों तक की-
 
सब प्रकार तक की- सवारियों की हरकत, भगदड़।
 
रेंक गधों की, घोड़ों की हिनहिनी,
 
टुनटुनी सायकिलों की,
 
हॉर्न ट्रकों, लॉरियों, बसों की,
 
पों-कर-पों मोटर कारों की
 इंसानों के शोर-शड़प्‍पेशड़प्पे, हो-हल्‍ले हल्ले से 
होड़ लगाती।
 झुग्‍गीझुग्गी-झोड़‍ियोंझोड़ियों, घर फ्लैटों, 
बँगलों-आकाशी महलों, दूकान, दरीबों,
 
कचहरियों, दरबार, दफ़्तरों,
 
और कोटलों और होटलों में
 
जीवन के सौ जंजालों,
 
लेन-देन, छीनाझपटी, चालों-काटों,
 
बहसों, हिदायतों, शिकायतों,
 सरकारी कारगुजा़री, भ्रष्‍टाचारीभ्रष्टाचारी
टंकन-यंत्रों, शासन तंत्रों,
 तफ़रीहों, छूरी-काँटों, प्‍यालीप्याली-प्‍लेटोंप्लेटों
बोतलों-गिलासों की गहमागहमी
 
भीषण गहमागहमी
 
भीषण हलचल है, चहल-पहल है।
 
दाँते ने
 
जो नरक किया था कल्पित
 
उस पर लिखा हुया था-
 
'इसके अंदर आने वालों,
 
अपनी सब आशाएँ छोड़ों।'
 
महानगर के महा द्वार पर
 
लिखा हुया है-
 
'इसके अंदर आने वालों,
 
सबसे पहले
 
अपनी मानवता छोड़ो।
 बाद किसी संस्‍थासंस्था, समाज दल, संघ, मंच से 
कारबार, अख़बार, मलखा़ने, दफ़्तर से
 
नाता जोड़ों;
 
और नागरिक सफल अगर बनना चाहो,
 ::अपनत्‍व अपनत्व मिटाओ; 
अभिनय करना सीखो
औ' भूमिका जहाँ, जब, जैसी बैठे,
 ::उसे निभाओ।'  
महानगर यह महामंच है;
 
असफल होने यहाँ नहीं कोई आया है;
 सिद्ध‍िसिद्धि, समृद्धि, सफलता का हरेक अभिलाषी, ईर्ष्‍याईर्ष्या-प्रेरित अपने सहकर्मी, सहयोगी, समकक्षी से; यहाँ न रिश्‍तारिश्ता
यहाँ न नाता,
 
औ' न मिताई,
 
भाई-बंदी,
 
यहाँ एक है सिर्फ दूसरे का प्रतिद्वंदी।
 
सब लोगों ने अभिनय करना सीख लिया है।
 प्राप्‍त कुश्‍लता प्राप्त कुश्लता और दक्षता ऐसी कर ली कुछ लोगों ने, 
अदा भूमिकाएँ कर सकते कई साथ ही,
 
भाँति-भाँति के लगा मुखौटे।
 अभी शाक्‍त शाक्त हैं, अभी शैव हैं, अभी वैष्‍णववैष्णव; परम प्रवीण-धुरीण कला में नेता, व्‍यापारीव्यापारी, अधिकारी। ख़सम मसरकर सत्‍ती सत्ती होनेवाली नारी, 
कथा रही हो,
 
महानगर की नारी मातम में शामिल हो,
 ::श्‍वेत श्वेत वसन में, 
अश्रु बहाकर, हाय, हाय कर
 पल में साड़ी बदल ब्‍याह ब्याह में शिरकत करती,-रँगी- चुँगी- ::::खिल-खिल हँसती।  
आडंबर, उपचार, दिखावा
 
ऊपर-ऊपर होता रहता,
नीचे-नीचे चाकू लता, कैंची चलती,
 ::और किसी का पत्‍ता पत्ता कटता, ::और किसी की पूँजी कटती।  
महानगर में मानवता छोड़नी नहीं पड़ती
 
ख़ुद-ब-ख़ुद छूट जाती है।
 
धनी वर्ग कर हृदय टटोलो,
 
उसकी छाती सोने-चाँदी-सी ठस-ठंडी,
 
किसी बात से,
 
किसी घात से,
 ::क्‍यों क्यों पिघलेगी। 
पंच प्राण की जगह
 पाँच सिक्‍के सिक्के अटके हों 
तो इस पर मत अचरज करना
 मध्‍यवर्ग मध्यवर्ग को जीने का संघर्ष व्‍यस्‍त व्यस्त इतना रखता है, लस्‍तलस्त-पस्‍त पस्त इतना कर देता, 
दम रहता नहीं दूसरे को देखे भी;
 स्‍वार्थ्‍ स्वार्थ् नहीं, कमजोरी उसकी ::लाचारी है। औ' दरिद्रता निम्‍नवर्ग निम्नवर्ग की। पशुता के अति निम्‍न निम्न धरातल से 
उसको जकड़े रहती है,
 कुछ उसके अतिरिक्‍त अतिरिक्त कहीं, वह नहीं जानता। 
मानवता है दान, दया, दम।
 
यहाँ नहीं कोई देता है;
 दिया कहीं पाने का अब विश्‍वास विश्वास मर गया। जो देता है, यहीं, कहीं उससे ज्‍़यादाज़्यादा
पाने-लेने को।
 
दया हृदय की दुर्बलता द्योतित करती है,
लोग यहाँ के उसे छिपाते,
 
प्रकट हुई तो उससे लाभ उठानेवाले
 
घेरे, पीछे लगे रहेंगे।
 
दमन दूसरा जहाँ किसी का करने को हर समय,
 आत्‍मदमन आत्मदमन किसलिए करेगा? 
अगर करेगा तो वह औरों को
 
मुँह माँगा अवसर देगा।
 आत्‍मआत्म-प्रस्‍फुटनप्रस्फुटन, आत्‍म आत्म प्रकाशन और आत्‍मआत्म-विज्ञापन में सब लोग लगे हैं। गुण-योग्‍यता योग्यता उपेक्षित रखकर 
यहाँ दबा दी जाती असमय,
 
उछल-कूद करनेवाले
 
लोगों की नज़रों में तो रहते।
 
लोग याद तो उनको करते,
 
चाहे उनके अवगुण कहते।
 
दम के बूदम अनदेखे, अनसुने, अचर्चित,
 ::अविदित मरते। 
छूट गई मानवता जिनकी-किसी तरह भी-
 उनको जैसे बड़ी व्‍याधि व्याधि से मुक्ति मिल गई, उन्‍हें उन्हें जगत-गति नहीं व्‍यापतीव्यापती
बड़े भले वे!
 किन्‍तु किन्तु अभागे कुछ ऐसे हैं, 
महानगर में आ तो पड़े
 
मगर मानवता अपनी छोड़ नहीं पाए हैं।
 वे अपना अपनत्‍व अपनत्व मिटा दें तो क्‍या क्या उनके पास बचेगा? तो क्‍या क्या वह खुद रह जाएँगा? 
वे अपने को नबी समझते
 
महानगर में अजनबियों से घूमा करते-
 वे कुंठित, संत्रस्‍तसंत्रस्त, विखंडित, पस्‍तपस्त, निराश, हताश, परास्‍तपरास्त, पिटे, अलगाए, ::अपने घर में निर्वासित-से, :::ऊबे-ऊबे,  ::अंध गुहा में डुबे-डुबे- कलाकार, साहित्‍यकारसाहित्यकार, कवि- असंगठित, एकाकी, केंद्र वृत्‍त वृत्त के अपने। कभी-कभी वे अपने स्वत्‍व स्वत्व जनाने को, प्रक्षिप्‍त स्‍वयं प्रक्षिप्त स्वयं को करने को 
कुछ हाथ-पाँव माराकरते हैं,
 पर प्रयत्‍न प्रयत्न सब उनका 
तपते, बड़े तवे पर
 
पड़ी बूँद-सा
 छन्‍नछन्न-छन्‍न छन्न करते रह जाता, महानगर के महानाद केनक्‍क़ारों केनक्क़ारों में ::तूती बनकर- प्रतिध्‍वनियाँ प्रतिध्वनियाँ चाहे छोटे कस्‍बों कस्बों से आएँ। 
शेष
 
महानगर के महायंत्र के
 
उपकरणों, कल, कीलों, काँटों, पहियों में
 
परिवर्तित होकर-जीवित जड़ से-
 
चलते-फिरते, हिलते-डुलते
 करूँ-क्‍या क्या करूँ-क्‍या क्या न करूँ- क्या करूँ-करूँ-स्‍वर स्वर करते रहते। 
मैं जब पहले-पहल गाँव-
 
नंग, गंग, बौन, असलाए-
 
महानगर के अंदर पहुँचा-
 
शोर शरर के साथ
 धुआँ-धक्‍कड़ ब‍िखराताधक्कड़ बिखराता, भीड़-भाड़-भब्‍भड़ भब्भड़ को चारों तरफ़ 
रेलता और ठेलता और पेलता औ' ढकेलता
 
अथक, अनवरत, अविरत गति से-
 
तो मुझको यह लगा
 
कि लाखों पुर्जोंवाली
 
एक विराट मशी
 अपरिमित शक्‍ति‍शक्ति-मत्‍त मत्त इंजन के बल पर 
बड़े झपाटे से चलती, चलती ही जाती,
 ::जैसे कभी न थमनेवाली; 
और खड़ा मैं उसके इतने निकट
 
कि ख़तरे की सीमा में पहुँच गया हूँ,
 
बाल-बाल ही बचा हुआ हूँ,
 
फिर भी मुझको जैसे जबरन
 
खींच रही वह,
 
पलक झपकते ले लपेट में
 
कुचल-पुचल कर हड्डी-पसली
 ::टुकड़े-टुकड़े ::रेशे-रेशे कर डालेगी।  
पत्र लिखा बाबा को मैंने-
 
महानगर यह
 
एक महादानव है,
 
जबड़े फाड़े खाने दौड़ रहा है,
 
औ' उससे बचने को उसके
 
जबड़े की ही ओर जैसे भगा जाता हूँ।
 
बाबा थे अनुभवी, पकड़ के सही;
 पत्र का उत्‍तर उत्तर आया, 
जिसने धीरज मुझे बँधाया,
 
महानगर में रहने का गुर
 
बाबा ने था मुझे बताया-
 
महानगर की महानता की ओर न देखो,
 
नगर की सड़क,
 
सड़क की गली,
 
गली का फ्लैट,
 
फ्लैट का नंबर अपना बस पहचानो।
 
रोटी-रोज़ी की जो सीधी राह,
 ::उसी पर आओ-जागो; ::गो उस ::पर भी थोड़ी मुश्किल तो होगी ही- तब यह दानव तुम्‍हें तुम्हें नहीं खाने दौड़ेगा, ::तुम्‍हीं तुम्हीं मजे में इसको खाओ।  
औ' बरसो के बाद मुझे यह ज्ञान हुआ है,
 
यह गुर सारे नागरिकों का बुझा-जाना,
 
महानगर कुछ और नहीं है,
 
महानगर के नागरिकों का केवल खाना।
 
समझ रहा हर एक शेष को है वह खाता,
 
और अंत में पचा हुआ
 ::अपने को पाता।</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
16,472
edits