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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=कटती प्रतिमाओं की आवाज / हरिवंशराय बच्चन
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{{KKCatKavita}}<poem>
एक दिन तूने भी कहा था,
 
जड़?
 
जड़ तो जड़ ही है,
 
जीवन से सदा डरी रही है,
 
और यही है उसका सारा इतिहास
 
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,
 
लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
 ::::बाहर निकला, ::::बढ़ा हूँ, :::मज़बूत बना हूँ, :::इसी से तो तना हूँ। 
एक दिन डालों ने भी कहा था,
 
तना?
 
किस बात पर है तना?
 
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना।
 
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
 
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
 
लेकिन हम तने में फूटीं,
 :::दिशा-दिशा में गईं :::ऊपर उठीं, :::नीचे आईं 
हर हवा के लिए दोल बनी, लहराईं,
 
इसी से तो डाल कहलाईं।
 
एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
 
डाल?
 डाल में क्‍या क्या है कमाल? 
माना वह झूमी, झुकी, डोली है
 :::ध्‍वनिध्वनि-प्रधान दुनिया में एक शब्‍द शब्द भी वह कभी बोली है? लेकिन हम हर-हर स्‍वर स्वर करतीं हैं, मर्मर स्‍वर स्वर मर्म भरा भरती हैं :::नूतन हर वर्ष हुई, ::::पतझर में झर :::बाहर-फूट फिर छहरती हैं, 
विथकित चित पंथी का
 
शाप-ताप हरती हैं।
 
एक दिन फूलों ने भी कहाँ था,
 
पत्तियाँ?
 पत्तियों ने क्‍या क्या किया? संख्‍या संख्या के बल पर बस डालों को छाप लिया, 
डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
 
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
 
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
 :::रंग लिए, रस लिए, पराग लिए- 
हमारी यक्ष-गंध दूर-दूर फैली है,
 
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
 
हम पर बौराए हैं।
 
सबकी सुन पाई है,
 
जड़ मुसकराई है!
</poem>
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