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11:54, 21 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सोनरूपा विशाल
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<poem>
दादी माँ का जाना अब तुलसी तक को खलता है।
साँझ हो गयी चौरे पर जब दीप नहीं जलता है।
पूरनमासी एकादश सब याद दिलाये रहतीं
हर दिन को जैसे दादी त्यौहार बनाये रहतीं
अब घर का आँगन सुस्ती से आँखों को मलता है।
दोपहरी भर बातों की इक लम्बी रेल चलातीं
अपने दौर की सारी बातें रस लेकर बतलातीं
अब दिन पहले जैसा लज़्ज़तदार कहाँ ढलता है।
मेला, पिक्चर, सजने धजने की शौकीन बहुत थीं
दादी इन्द्रधनुष के रंगों सी रंगीन बहुत थीं
ख़ुश होती हूँ जब इन स्मृतियों का रेला चलता है।
</poem>