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05:15, 24 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विक्रम शर्मा
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|संग्रह=
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<poem>
इस तरह पूरी हुई आधी कसम
हमने रख ली आपकी खायी कसम
हो गयी ज़ाया दलीले फिर सभी
फिर से उसने कह दिया 'तेरी कसम'
सच हमेशा झूठ ही समझा गया
और सच समझी गयी झूठी कसम
बेअसर है भूल जाने की दुआ
यूँ करो दे दो मुझे अपनी कसम
उलझनें उनको भी थी इज़हार में
मुझको भी थी रोकती कोई कसम
</poem>