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<poem>
आख़िरश बच न सका आग लगाने वाला
जल गया ख़ुद भी नशेमन को जलाने वाला

डगमगाएगा भला साथ निभाने वाला
मंज़िले-दार तक आ जायेगा आने वाला

किस क़दर सादा है इस दर्द सितम पेशा में
दास्तां ज़ुल्म की बहरों को सुनाने वाला

आ गया देखिये ख़ुद आप ही अपनी ज़द में
तीर पत्थर के मकानों पे चलाने वाला

हैं उफ़ुक़-त-बउफ़ुक़ नूर की किरणें रक़सां
आया अब आया कोई राह दिखाने वाला

मुल्क में, क़ौम में, बस्ती में, नगर में, घर में
एक ही होता है तारीख़ बनाने वाला

क़त्ल हो जाता है ख़ुद अपने ही हाथों 'गौहर'
ख़ाके तहज़ीब का ख़ुद अपनी उड़ाने वाला।
</poem>
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