2,721 bytes added,
22:32, 26 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''बुझती कोन्या आग पेट की, ममता चाले करगी।'''
'''सागर कैसी झाल उठे, हिया हाल गया मैं डरगी।।टेक।।'''
बेटा जण के दिया भेंट में, अब ना चाहती जीना।
आत्महत्या कर मंगा के, जहर पड़ेगा पीना।।
पैदा हुई जब बेमाता ने, भाग बणाया हीणा।
फटा कालजा इस ढंग से, न्यूं मुश्किल होगा सीणा।
रुक-रुक आवें सांसा जुलम के, गम से छाती भरगी।। 1।।
गिरजा पहाड़ एक दम, फटनी चहिये धरती।
बदल गया भगवान भगत की, सुनता नहीं कुदरती।।
पडक़ै सीगी मौत जगत में, क्यूं ना पापण मरती।
लकड़ी में घुण लगा रहे, न्यूं चित की चिंता चरती।।
मरे बिना दुख मिटे नहीं, न्यूं बात जिगर में जरगी।। 2।।
पतिदेव दुखिया की खातिर, वृथा पड़े क्यों जेल में।
बत्ती जलती दिया ना जलता, लग रही आग तेल में।।
धोरे बैठे और जड़ काटे, फायदा नहीं मेल में।
फल मिलने की आस नहीं, जब कीड़ा लगजा बेल में।।
म्हारे वंश की बेल कंस की, जालिम तेग कतरगी।। 3।।
इस बन्धन में पड़े-पड़े, तो जनम अकरथ खोणा।
पड़े जेल में सड़े रहेंगे, जीते जी का रोणा।।
चौड़े पड़ी दीख रही दुनिया, है मुश्किल सुख होणा।
रघुनाथ कथा सुखसागर की, गा दाग पाप के धोणा।।
गुरु मानसिंह के सत्संग से, आदत सही सुधरगी।। 4।।
</poem>