मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की !
विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली !
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन बोले,
पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
लौट जाता गंध वह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को,
मौन खग विस्मित- ‘कहाँ अटकी मधुर उल्लासवाली ?’
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा;
चाहती छाना दृगों में आज तज कर गाल लाली।
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
है विकल उल्लास वसुधा के हृदय से फूटने को,
भृंग मधु पीने खड़े उद्यत लिये कर रिक्त प्याली ।
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है;
१९३४
</poem>