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<poem>
तुम ही प्रश्न नही करते हो मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।
हिम्मत करके बाहर आओ
ख़ुद के अंदर से निकलो,
बाहर तो आकाश खिला है
घर के अंदर से निकलो।
काया कल्प तुम्हारा कर दूं
ऐसा जंतर लिए खड़ा हूँ
तुम ही प्रश्न नही करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।

पर्वत से तुम नीचे आकर
बस थोड़ा सा लहराओ,
मंज़िल तुमको मिल जाएगी
नहीं तनिक भी घबराओ।
लहरों के आगोश में आओ
एक समंदर लिए खड़ा हूँ।।
तुम ही प्रश्न नही करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।

आओ आओ मुझको वर लो
मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूँ,
तुम देहरी से भवन बना लो
मैं तो निपट दुआरा हूँ।
क्यों अब देर कर रहे प्रियतम
मैं तो अवसर लिए खड़ा हूँ।
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।

ये धरती जन्मों की प्यासी
आओगे तो तृप्ति मिलेगी,
रेत हुए मन के आंगन को
एक अनोखी सृष्टि मिलेगी।
पानी बीज खाद बन जाओ
मैं मन बंजर लिए खड़ा हूँ।।

आखिर तुमने पूछ लिया है
धरती बादल का रिश्ता,
छुवन छुवन ने बता दिया है
मरहम घायल का रिश्ता।
तुमने जादू फैलाया तो
मैं भी मंतर लिए खड़ा हूँ।
तुम ही प्रश्न नही करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।
</poem>
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