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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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'छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,
 
ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।
 
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,
 
अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?
 
'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,
 
एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।
 
गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा,
 
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?
 
'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?
 
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।
 
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?
 
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?
 
'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,
 
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।
 
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
 इन्हीं पाद-पद्‌मों पद्मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।' 
लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,
 
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।
 
बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
 
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?
 
'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
 
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
 
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
 
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।
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